संत रविदास भारत के महान संतों में से एक हैं। संत रविदास ने अपने वचनों व दोहों से भक्ति की अलग छाप दुनिया में छोड़ी। आज भी लोग उन्हें उनके वचनों व दोहों के लिए याद करते हैं। जानें संत रविदास जयंती कब है।
हिंदू पंचांग के अनुसार, हर साल माघ पूर्णिमा को संत रविदास जयंती मनाई जाती है। इस साल संत रविदास जयंती 12 फरवरी 2025, बुधवार को है। संत रविदास ने रविदासिया पंथ की स्थापना की थी। इन्हें संत शिरोमणि की उपाधि दी गई थीं। कुछ इतिहासकारों के अनुसार, संत रविदास जी का जन्म 1377 ई. में उत्तर प्रदेश के वाराणसी के सीर गोवर्धनपुर गांव में हुआ माना जाता है। इनके पिता का नाम श्री संतोक दास जी और माता का नाम श्रीमती कालसा देवी जी है। जबकि कुछ विद्वानों का मानना है कि उनका वर्ष 1399 में हुआ था। गुरु रविदास को रैदास, रोहिदास एवं रूहीदास के नाम से भी जाना जाता है।
भक्ति आंदोलन के थे प्रसिद्ध संत-
गुरु भक्ति आंदोलन के प्रसिद्ध संत थे। उनके भक्ति गीतों व छंदों ने भक्ति आंदोलन पर स्थाई प्रभाव डाला था। महान संत गुरु रविदास को और उनके योगदान को आज भी दुनिया याद करती है और उनके सम्मान में हर साल रविदास जयंती का पर्व मनाया जाता है।
समाज सुधार में दिया खास योगदान:
गुरु रविदास जी का शिक्षा के अलावा समाज सुधार में भी विशेष योगदान देखने को मिलता है। उन्होंने समाजिक समानता के लिए अपनी आवाज उठाई और इस विषय के बारे में लोगों को जागरूक किया था।
कैसे बने संत शिरोमणि: पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक बार संत रविदास को उनके पिता ने घर से निकाल दिया था। जिसके बाद वे एक कुटिया में रहने लगे और साधु-संतों की सेवा करने लगे थे। संत रविदास जूते-चप्पल बनाते थे। फिर वह भक्ति आंदोलन का हिस्सा बनें। कुछ संत रविदास के विचारों से प्रभावित होने लगे और उनके अनुयायियों की संख्या लगातार बढ़ती गई। तभी से वे गुरु रविदास शिरोमणि के रूप में प्रसिद्ध हुए।
गुरु रविदास जी के अनमोल विचार- 1. कोई भी व्यक्ति जन्म से छोटा या बड़ा नहीं होता है, लेकिन अपने कर्मों से छोटा-बड़ा होता है।
2. भगवान उस व्यक्ति के हृदय में वास करते हैं, जहां किसी तरह का बैर भाव नहीं होता है।
संत रविदास जी की कथा (Sant Ravidas Ji Ki Katha)
रविदास जी के पिता मल साम्राज्य के राजा नगर के सरपंच थे और वह जूतों का व्यापार और उसकी मरम्मत का कार्य करते थे। कहा जाता है कि बचपन से ही रविदास जी बेहद बहादुर और ईश्वर के बड़े भक्त हुई करते थे। लेकिन उन्हें अपने जीवन काल में उच्च जाति के द्वारा उत्पन्न भेदभाव की वजह से काफी संघर्ष करना पड़ा जिसका जिक्र उन्होंने अपने लेखन के द्वारा किया। उन्होंने लोगों को सीख दी कि पड़ोसियों को बिना भेद-भेदभाव के प्यार करो।
कहते हैं कि बचपन में संत रविदास जी अपने गुरु पंडित शारदा नंद के पाठशाला गये जिनको बाद में कुछ उच्च जाति के लोगों द्वारा वहां दाखिला लेने से रोका गया। हालांकि पंडित शारदा जी ने महसूस किया कि रविदास कोई सामान्य बालक नहीं है बल्कि यह ईश्वर के द्वारा भेजी गयी संतान है। यह सोचकर पंडित शारदानंद ने रविदास जी को अपनी पाठशाला में दाखिला दिया। रविदास जी बहुत ही तेज और होनहार थे। पंडित शारदा नंद उनसे और उनके व्यवहार से काफी प्रभावित रहते थे वो जानते थे कि एक दिन रविदास आध्यात्मिक रुप से प्रबुद्ध और महान सामाजिक सुधारक के रुप में प्रसिद्ध होंगे।
पाठशाला में पढ़ने के दौरान रविदास जी की पंडित शारदानंद के पुत्र के साथ मित्रता हो गई। एक दिन दोनों लोग लुका-छिपी खेल रहे थे, पहली बार रविदास जी जीते तो दूसरी बार उनके मित्र की जीत हुई। अब रविदास जी की बारी थी लेकिन अंधेरा होने की वजह से वो लोग इस खेल को पूरा नहीं कर सके उसके बाद दोनों ने खेल को अगले सुबह जारी रखने का फैसला किया। सुबह रविदास जी तो खेलने के लिए आये लेकिन उनके मित्र नहीं आये। लंबे समय तक इंतजार करने के बाद वह अपने उसी मित्र के घर गये और देखा कि उनके मित्र की मृत्यु हो चुकी है।
उसके बाद उनके गुरु ने संत रविदास को अपने बेटे की लाश के पास पहुंचाया। वहां पहुंचने पर रविदास जी ने अपने मित्र के कान में कहा कि उठो ये सोने का समय नहीं है दोस्त, ये तो लुका-छिपी खेलने का समय है। कहते हैं रविदास के ये शब्द सुनते ही उनके मित्र फिर से जी उठे। इस आश्चर्यजनक पल को देख हर कोई हैरान हो गया। इस तरह से अपने चमत्कारों के कारण धीरे-धीरे संत रविदास जी लोकप्रिय होने लगे।
संत रविदास जी की जीवनी (Sant Ravidas Ji Ki Jivani)
कहते हैं भगवान के प्रति रविदास जी के असीम प्रेम और भक्ति के कारण वे अपने पारिवारिक व्यापार से नहीं जुड़ पा रहे थे। अत: पारिवारिक व्यवसाय से जुड़ने के लिए उनके पिता ने उनका विवाह कम उम्र में ही कहा था। जिसके बाद उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई। लेकिन शादी के बाद भी रविदास सांसारिक मोह की वजह से अपने परिवार पर ध्यान नहीं दे पा रहे थे। यह देखकर उनके पिता ने रविदास जी को सांसारिक जीवन निभाने के लिए बिना कुछ मदद किए अपने परिवार और पारिवारिक संपत्ति से अलग कर दिया।
कहते हैं इस घटना के बाद रविदास जी अपने घर के पीछे रहने लगे और पूरी तरह से सामाजिक कार्यों में लग गए। बाद में रविदास जी भगवान राम के विभिन्न स्वरुपों राम, रघुनाथ, राजा राम चन्द्र, कृष्णा, गोविन्द आदि के नामों का इस्तेमाल अपनी भावनाओं को उजागर करने के लिये करने लगे और उनके महान अनुयायी बन गये। इसके बाद गुरु रविदास जी द्वारा बेगमपुरा शहर को बसाया गया।
रविदास जी ने अपनी कविताओं में इस शहर को एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया। जहां पर उन्होंने बताया कि ये एक ऐसा शहर है जो बिना किसी दुख, दर्द या डर के है और यहां एक जमीन है जहां सभी लोग बिना किसी भेदभाव के रहते है।
मीरा बाई से उनका जुड़ाव (Sant Ravidas And Meera Bai Ki Kahani)
संत रविदास जी को मीरा बाई के आध्यात्मिक गुरु थे। मीरा बाई राजस्थान के राजा की पुत्री और चित्तौड़ की रानी थी। वो संत रविदास जी से बेहद प्रभावित थी और उनकी बहुत बड़ी अनुयायी बनी। अपने गुरु के सम्मान में मीरा बाई ने यें बात कही- “गुरु मिलीया रविदास जी दीनी ज्ञान की गुटकी, चोट लगी निजनाम हरी की महारे हिवरे खटकी”।
संत रविदास जी का जीवन परिचय (Sant Ravidas Ji Ka Jivan Parichay In Hindi)
कहते हैं कि एक बार गुरु जी के किसी विद्यार्थी ने उनसे पवित्र नदी गंगा में स्नान के लिये पूछा तो रविदास जी ने किसी काम में फंसे होने के कारण गंगा स्नान करने से मना कर दिया। फिर रविदास जी के एक विद्यार्थी ने उनसे दुबारा गंगा स्नान करने का निवेदन किया तब उन्होंने कहा कि उनका मानना है कि “मन चंगा तो कठौती में गंगा” जिसका मतलब था कि शरीर को आत्मा से पवित्र होने की जरुरत है ना कि किसी पवित्र नदी में नहाने से, अगर हमारी आत्मा शुद्ध है तो हम भी पवित्र हैं चाहे हम घर में ही क्यों न नहाये। (Times Now Navbharat )