सावित्रीबाई फुले (3 जनवरी 1831 – 10 मार्च 1897) भारत की प्रथम भारतीय महिला शिक्षिका थीं, इस तथ्य से हम सभी वाकिफ हैं, लेकिन बहुत कम लोग हैं, जो इस तथ्य से परिचत होंगे कि वे आधुनिक भारत की पहली विद्रोही महिला कवयित्री और लेखिका थीं. उनकी कविताओं का पहला संग्रह, ‘काव्य फुले’ 1854 में प्रकाशित हुआ था. तब वे महज 23 वर्ष की थीं. इसका अर्थ है कि 19-20 वर्ष की उम्र से ही उन्होंने कविताएं लिखनी शुरू कर दी थीं. उनका दूसरा कविता संग्रह बावनकशी सुबोध रत्नाकर नाम से 1891 में आया.
सावित्रीबाई फुले अपनी रचनाओं में एक ऐसे समाज और जीवन का सपना देखती हैं, जिसमें स्त्री-पुरुष समानता हो, किसी तरह का कोई अन्याय न हो, हर इंसान मानवीय गरिमा के साथ जीवन व्यतीत करे. बेहतर समाज और सबके लिए खूबसूरत ज़िंदगी के मार्ग में उन्हें सबसे बड़ी बाधा ब्राह्मणवादी-मनुवादी व्यवस्था और इसके द्वारा रची गई जाति-पाति और स्त्री-पुरुष के बीच भेद-भाव दिखाई देता था. उन्होंने अपनी कविताओं में सबसे ज़्यादा चोट मनुवाद, जाति-पाति के भेद और स्त्री-पुरुष के बीच की असमानता पर किया है.
भागवतपुराण के अनुसार स्त्री तथा शूद्रों को वेद सुनने का अधिकार नहीं है। दोनों को शिक्षा पाने का अधिकार नहीं है। हिंदू धर्मग्रंथों में साफ तौर पर कहा गया है कि –
स्त्रीशूद्रौनाधीयाताम्[2]
(अर्थात् स्त्री तथा शूद्र अध्ययन न करें)
ऐसा नहीं है कि महज अध्ययन के मामले में स्त्रियों और शूद्रों को समान माना गया था। करीब सभी मामलों में शूद्रों और स्त्रियों को समान माना गया। विवाह संस्कार को छोड़ दिया जाए तो अन्य सभी संस्कारों के मामले में स्त्रियों को शूद्रों के समकक्ष रखा गया है। दोनों को संपत्ति के अधिकार से वंचित किया गया है। मनुस्मृति में साफ तौर पर कहा गया है कि पत्नी, पुत्र और दास के पास कोई संपत्ति नहीं हो सकती है। उनके द्वारा अर्जित संपत्ति उनकी होती है, जिसके वे पत्नी/पुत्र/दास हैं।
हिंदू धर्म, समाजिक व्यवस्था और परंपरा में शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की स्थिति को आधुनिक भारत में पहली बार जिस महिला ने चुनौती दिया, उनका नाम सावित्रीबाई फुले है। वे आजीवन शूद्रों-अतिशूद्रों की मुक्ति और महिलाओं की मुक्ति के लिए संघर्ष करती रहीं। उनका जन्म नायगांव नामक गांव में 3 जनवरी 1831 को हुआ था। यह महाराष्ट्र के सतारा जिले में है, जो पुणे के नजदीक है। वह खंडोजी नेवसे पाटिल की बड़ी बेटी थीं, जो वर्णव्यस्था के अनुसार शूद्र जाति के थे। वह जन्म से शूद्र और स्त्री दोनों ही एक साथ थीं, जिसके चलते उन्हें आजीवन दोनों के दंड एक साथ झेलने पड़े। ऐसे समय में जबकि शूद्र जाति के किसी लड़के के लिए शिक्षा प्राप्त करने की मनाही थी, उस दौर में शूद्र जाति में पैदा किसी लड़की के लिए शिक्षा पाने का कोई सवाल ही नहीं उठता। वे घर के काम करती थीं और साथ ही खेतों में पिता संग खेती के काम में सहयोग भी करती थीं।
शिक्षा और किताबों से दूर-दूर तक उनका कोई नाता नहीं था। पहली बार उन्होंने किताब तब देखा, जब वे गांव में अन्य लोगों के साथ बाजार शिरवाल गईं, यहां सप्ताह में एक बार बाजार लगता था। इस समय वे छोटी सी बच्ची ही थीं। जब वे बाजार से लौट रही थीं, उन्होंने देखा कि बहुत सारी विदेशी महिला और पुरुष एक पेड़ के नीचे ईसा मसीह की प्रार्थना करते हुए गाना गा रहे थे। वे जिज्ञासावस वहां रूक गईं, उन महिला-पुरुषों में किसी ने उनके हाथ में पुस्तिका थमाया। सावित्रीबाई पुस्तिका लेने से हिचक रही थीं। देने वाले ने कहा कि यदि तुम्हे पढ़ने नहीं आता, तब भी इस पुस्तिका को ले जाओ। इसमें छपे चित्रों को देखो, तुम्हें मजा आयेगा। वह पुस्तिका सावित्रीबाई अपने साथ लेकर आईं। उन्होंने उस पुस्तिका को संभालकर रख दिया। जब 9 वर्ष की ही उम्र में उनकी शादी 13 वर्षीय जोती राव फुले के साथ हुई और वे अपने घर से जोती राव फुले के घर आईं, तब वह पुस्तिका भी अपने साथ लेकर आई थीं।[7]
आधुनिक भारतीय पुनर्जागरण के दो केन्द्र रहे हैं – बंगाल और महाराष्ट्र। बंगाली पुनर्जागरण मूलतः हिंदू धर्म सामाजिक व्यस्था और परंपराओं के भीतर सुधार चाहता था और इसके अगुवा उच्च जातियों और उच्च वर्गों के लोग थे। इसके विपरीत महाराष्ट्र के पुनर्जागरण ने हिंदू धर्म, सामाजिक व्यवस्था और परंपराओं को चुनौती दिया। वर्ण-जाति व्यवस्था को तोड़ने और महिलाओं पर पुरुषों के वर्चस्व के खात्मे के लिए संघर्ष किया। महाराष्ट्र में पुनर्जागरण की अगुवाई शूद्र और महिलाएं कर रही थीं। जोती राव फुले, सावित्रीबाई फुले, पंडिता रमाबाई और ताराबाई शिंदे इसकी अगुवाई कर रहे थे। यह सच है कि इस पुनर्जागरण के सबसे प्रमुख व्यक्तित्व जोतीराव फुले थे। जोती राव गोविंदराव फुले (जन्म – 11 अप्रैल 1827, मृत्यु – 28 नवम्बर 1889) एक विचारक, समाजसेवी, लेखक, दार्शनिक तथा क्रान्तिकारी कार्यकर्ता थे।
